हे! मृगनयनी, हे! कमल बदन, क्या मैं दूं तुमको संबोधन?
प्रथम मिलन की वह वेला, आँखों से खेल क्या तुमने खेला... तेरे नयनो के तीक्ष्ण बाण, मैंने अपने दिल पेझेला
पलको का उठ के गिर जाना, धीरे से तेरा मुस्काना... अंगुली में लिपटा कर आंचल तेरा शरमानाघबराना...
अति उत्तम मदमस्त नयन लग रहे थे मधु के प्याले... सोच रहा था मैं बैठा, प्रकृति ने अंग तेरे, हैं किससांचे में ढाले?
प्रणय निवेदन था मेरा, तुमने उसको स्वीकार किया... पहना कर बाहों का कंठ हार, जीवन मेरा साकारकिया.
तुझमे ही सारा सुख पाया, पनपा मन में जग से विराग प्रियम... अब तुम ही मेरा जीवन हो तुम में बसतेहै प्राण प्रियम.
अनजाने सुख की इच्छा मे भटके था मन ये अज्ञानी... लगता है सारा जग अँधा ना महिमा प्रेम कीपहचानी...
अक्षय पावन है प्रेम मेरा, तू लागे ईश्वर से प्यारी... दो आखर का है शब्द प्रेम, पर है सब ज्ञानन पर भरी.
किस भांति जताऊं मै तुमको, मन विरह व्यथा में रोता है... जो दर्द ह्रदय में आता है, नित आँखों से बहजाता है.
दूर सही पर पूरक है, तुम सुबह मै किरण पुंज... देखो इतना न इतराओ, मै भवरा तुम पुष्पकुंज...
तुम सुन्दरता का सार तत्त्व तुम यौवन का अभिमान प्रियम! नवजीवन की श्रृष्टि में ही, है जीवन कासम्मान प्रियम!
हे प्रियम! यह पत्र नहीं, अभिव्यक्ति है मेरे मन की...
कर रहा समर्पित प्रेम यज्ञ मे, मैं आहूति इस जीवन का...
उठ रही यज्ञ की यह ज्वाला ले जायेगी सन्देश मेरा...
मै रात अमावस की अँधेरी बन के आओ राकेश मेरा...
तुझको अर्पित सब तन मन धन, जानू विधि न विधान प्रियम!
तेरे हाथो मे हृदय दिया, करना इसका सम्मान प्रियम!
तेरे हाथो मे हृदय दिया, करना इसका सम्मान प्रियम!
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